अपने भाव
विचार के बीच से ही कर्म का फल बनता है। इसीलिए सिर्फ शुद्ध विचारों के ही बीज बोने चाहिए। जैसे कि श्रेष्ठ फल की प्राप्ति हो सके। हम क्या करते है इसका महत्व कम है ,परतुं उसे हम किस भाव से करते है इसका महत्व बहुत है।
अंदर के भाव मे बड़ी ताकत होती है। जेसे भाव होते है वेसे कर्मबंदन होते है। हम कोई भी क्रिया करते है, उसमे भी जेसे भाव होंगे वेसा ही फल मिलेगा।
जेसे हम जो बोलते हे वो सामने वालेको पता चलता है , जो हम क्रिया करते है वो दिखाई देता है, पर हमारे अंदर जो विचार चल रहे है वो किसी को भी दिखाई नहीं देते हे,पर उसी भाव से कर्म a/c बनता है
जेसे सुबह में हमने चाय बनाई, गरम गरम चाय हमने कप पे निकाली और अचानक फोन आ गया और हम ने ये सोचा के चाय तो मुझे गर्म ही पसंद हे, चाय ठंडी न हो जाय इसलिए हमने उसे ढक दी, ताकी हम बादमे गर्म चाय पी सके। .. ये हो गया हमारा एक भाव। ... अब इसकी जगह हम ये सोचे की "अरे! चाय बहोत गरम हे खुली रह गई तो कुछ जीवजंतु उड़के चाय में गिरके मर जायेगा तो उस जीव को बचाने के लिए हम ने चाय ढक दी। ये हो गया हमारा दुसरा भाव। ...
अब आप ही सोचो कोनसे भाव मे हमे पुण्य मिल सकता हे ??
पहले भाव मे हमने हमारे बारे मे सोचा, हमारे मन के बारे मे ,हमारे मन को ठंडी चाय पसंद नहीं थी। ... पर दुसरे मे हमारे भाव दूसरे जीवो के बारे मे सोच रहा था इसलिए हमारा कर्म (पुण्य) यही पर अच्छा बन जाता है। बात तो एक ही थी चाय को ढक देना, पर मन के भाव अलग- अलग थे इसलिए जो भी कर रहे हो पहले भाव को देख लेना चाहिए।
हम सब ने ये अनुभव किया ही होगा की हम अचानक किसी के घर बीन बताये चले गए और सामने वाले ने भी बहुत मीठे शब्द मे welcome किया, खाना भी खिलाया और ख़ुशी से बात भी कर रहे हे, पर कहीना कही हमे अच्छा महसूस नहीं हो रहा। ..और सोचते हे जल्दी चले जाय। ..वो इसलिये होता हे क्योकि वो व्यक्ति किनता भी मीठा बोले पर उनके मन मे अलग भाव चल रहे थे, तब वो मन से यह सोच रहा था....ये लोग ऐसे केसे बिना बताये आ गए! मुझे अब उनके लिए खाना भी बनना पड़ेगा, ख्याल भी रखना पड़ेगा, मुझे तो कल सुबह जल्दी उठाना था अब late हो जायेगा।।अब मेरा पूरा दिन ख़राब हो जायेगा !ऐसे कुछ विचार चल रहे होते हे, तब हमें ऐसा कुछ महसूस होता हे। .. जो महसूस होता हे वो हम दिखा नहीं सकते पर ये सब मन के भाव ही होते हे जो कभी दिखाई नहीं देते हे पर आप उसे महसूस कर सकते हो
ये अंदर के भाव थे, वो सामने से तो अच्छे से बात कर रहे है पर मन के भाव में कुछ और, तो अब यह सोचो कर्मा कोनसा बनेगा?
इसीलिए जेसे भाव आएंगे वेसा ही फल हमें मिलेगा! जिस दिन आपके अंदर उच्च विचार आएंगे तभी आपके अंदर के भाव बदल जाएगे और हम हर पल अच्छे कर्म कर सकेंगे। मन के भाव ही हमारे कल को बदल सकते है. जिस दिन हम ने हमारे भीतर देखना शुरू कर देंगे हमारा कर्मा बदल जायेगा। हमारे किये गए कार्य का फल भी हमें अच्छा ही मिलेगा बस जरुरत है तो हमारे अंदर के भाव को देखने की समझने की
आप सभी से छुपा सकते है पर कर्म आपको देख रहा है ,
बस आप ये याद रखे की यह आपके और दुसरो के बीच नहीं ! पर हमेशा आपके और कर्मा के बीच है. कर्म - बोल और व्यवहार में नहीं। उसके पीछे की सोच और भावना में है.श्रेष्ठ भावना ही श्रेष्ठ भाग्य बनाती है।
कभी-कभी हम यह अनुभव करते ही होंगे जैसे हम कुछ शब्जी खरीदने गये और वहा शब्जी वाले के साथ अच्छे से भाव-तोल करके हम ने वो शब्जी खरीदली अब आप उसे पैसे दे रहे हो तब उसके पास छुट्टा पैसा नहीं है। वह इधर-उधर से मिल जाये इसलिए कोशिश भी करता है पर अंत में न मिलने पर वह आपसे ही कहता है की: ठीक है आप कल आके पैसे दे देना। हम खुश होकर वहा से निकल जाते है फिर हम दूसरे दिन नहीं जाते है और मन ही मन खुद से बात भी करते है: जाने दो अब नहीं देना हमे तो फ्री में शब्जी मिल गयी और हमारे पैसे भी बच गये पर कर्म सत्ता कभी कुछ बाकी नहीं रखता अभी तो हमें ख़ुशी मिल गयी, अभी इस जन्म में तो समझो आपके पास पैसा है फिर भी हम न देके खुश हो रहे है, पर कर्म जब आपके पास वापिस आयेगा तब वह यह नहीं देखेगा की आपके पास पैसे है या नहीं है वह तो जो बाकी रखे है वह पैसे कभी न कभी कोई भी नये जन्म में या तो अब तो यह कलयुग में हमें कई बार इसी जन्म में कर्म भुगतने पड़ते है. तब कर्मा यह नहीं देखता की आपकी परिस्थिति क्या है? आप कहा पर हो कुछ भी नहीं देखता बस संजोग मिलते ही आपको वह पैसे वापिस देने ही पड़ते है फिर वो समय शायद हमारे पास पैसा कम हो तो भी कोई भी रास्ते से वो बाकी रखे पैसे उस तक पहोच ही जाते है. कर्म का चक्र ही ऐसा है! जेसे कई बार पैसे गुम जाते है, या किसी को ज्यादा पैसे दे देते है या तो कोई आ के हमें धोका भी दे देता है। सब चक्र कर्म का ही है कर्म ही सारे संयोग करवाता है। वही आपसे सारी क्रिया करवाता है, पर थोड़ी सी समजदारी और कर्म को समझ के अच्छी नीति रखे तो नये कर्म जमा नहीं होंगे और पूरा ने कर्म कम होते जायेगे।
"कर्म वो फसल है जिससे इंसान को हर हाल में काटना ही पड़ता हे इसीलिए हमेंशा अच्छे बीज बोए ताकि फसल अच्छी हो !"
याद रखो : परमात्मा कभी भाग्य नहीं लिखता, जीवन के हर कदम पर हमारी सोच और हमारे कार्य ही हमारे अच्छे बुरे कर्म ही हमारा भाग्य लिखते है।
विचार के बीच से ही कर्म का फल बनता है। इसीलिए सिर्फ शुद्ध विचारों के हि बीज बोने चाहिये। जैसे कि श्रेष्ठ फल की प्राप्ति हो सके। हम क्या करते है इसका महत्त्व कम है ,परंतु उसे हम किस भाव से करते है इसका महत्त्व बहुत है। अंदर के भाव मे बड़ी ताकत होती है। जैसे भाव होते है वैसे कर्मबन्धन होते है। हम कोई भी क्रिया करते है, उसमें भी जैसे भाव होंगे वैसा ही फल मिलेगा।
जैसे हम जो बोलते हे वो सामने वाले को पता चलता है, जो हम क्रिया करते है वो दिखाई देता है, पर हमारे अंदर जो विचार चल रहे है वो किसी को भी दिखाई नहीं देते हे,पर उसी भाव से कर्म a/c बनता है
जैसे सुबह में हमने चाय बनाई, गरम गरम चाय हमने कप मे निकाली और अचानक फोन आ गया और हम ने ये सोचा के चाय तो मुझे गर्म ही पसंद हे, चाय ठंडी न हो जाय इसलिए हमने उसे ढक दी, ताकि हम बादमे गर्म चाय पी सके। ये हो गया हमारा एक भाव। अब इसकी जगह हम ये सोचे की "अरे चाय बहुत गरम हे खुली रह गई तो कुछ जीव -जंतु उड़कर चाय में गिरकर मर जायेगा तो उस जीव को बचाने के लिए हम ने चाय ढक दी। ये हो गया हमारा दूसरा भाव। ... अब आप ही सोचो कोन से भाव मे हमें पुण्य मिल सकता हे ? पहले भाव मे हमने हमारे बारे मे सोचा, हमारे मन के बारे मे सोचा ,हमारे मन को ठंडी चाय पसंद नहीं थी। पर दूसरे मे हमारा मन दूसरे जीवों के बारे मे सोच रहा था इसलिए हमारा कर्म (पुण्य) यही पर अच्छा बन जाता है। बात तो एक ही थी चाय को ढक देना, पर मन के भाव अलग- अलग थे इसलिए जो भी कर रहे हो पहले भाव को देख लेना चाहिए.
अगर नीयत अच्छी हो तो कर्म कभी बुरा नहीं होता है और भगवान किस्मत नहीं लिखते हमारे कर्म हमारी किस्मत लिखते है।
सब ने ये अनुभव किया ही होगा की हम अचानक किसी के घर बीन बताये चले गए और सामने वाले ने भी बहुत मीठे शब्द मे welcome किया, खाना भी खिलाया और ख़ुशी से बात भी कर रहे हे, पर कहीना कही हमें अच्छा महसूस नहीं हो रहा। ..और हम ये सोचते हे की यहाँ से जल्दी चले जाय। ..वो इसलिये होता हे क्योंकि वो व्यक्ति कितना भी मीठा बोले पर उनके मन मे अलग भाव चल रहे थे, तब वो मन से यह सोच रहा था....ये लोग ऐसे कैसे बिना बताये आ गए! मुझे अब उनके लिए खाना भी बनना पड़ेगा, ख्याल भी रखना पड़ेगा, मुझे तो कल सुबह जल्दी उठाना था अब late हो जायेगा। अब मेरा पूरादिन खराब हो जायेगा! ऐसे कुछ विचार चल रहे होते हे, तब हमें ऐसा कुछ महसूस होता हे। जो महसूस होता हे वो हम दिखा नहीं सकते पर ये सब मन के भाव ही होते हे जो कभी दिखाई नहीं देते हे पर आप उसे महसूस कर सकते हो
ये अंदर के भाव थे, वो सामने से तो अच्छे से बात कर रहे है पर मन के भाव में कुछ और, तो अब यह सोचो कर्म कोनसा बनेगा?
इसीलिए जैसे भाव आएँगे वैसा ही फल हमें मिलेगा. जिस दिन आपके अंदर उच्च विचार आएँगे तभी आपके अंदर के भाव बदल जाएँगे और हम हर पल अच्छे कर्म कर सकेंगे। मन के भाव ही हमारे कल को बदल सकते हैं. जिस दिन हम ने हमारे भीतर देखना शुरू कर देंगे हमारा कर्म बदल जायेगा। हमारे किये गए कार्य का फल भी हमें अच्छा ही मिलेगा बस जरूरत है तो हमारे अंदर के भाव को देखने की समझने कि.
आप सभी से छुपा सकते है पर कर्म आपको देख रहा है ,,
बस आप ये याद रखे की यह आपके और दूसरों के बीच नहीं पर हमेशा आपके और कर्म के बीच है कर्म -- बोल और व्यवहार में नहीं, उसके पीछे की सोच और भावना में है. श्रेष्ठ भावना ही श्रेष्ठ भाग्य बनाती है.
APPS
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किसी की तकलीफ देख कर मन में करुण का भाव रखो। किसी व्यक्ति की बीमारी,शरीर में तकलीफ या दुःख देखकर हमारे मन करुणा का भाव आना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति आपका शत्रु है या विरोधी है और वह दुःख में है तो उसके दुःख को देखकर तुम सुख का अनुभव करते हो यह उचित नहीं है, उसके कर्म का फल तो वह दुःख भोगकर काट लेगा लेकिन यदि तुम उसके प्रति ऐसे भाव लाओगे तो तुम अनुचित कर्मो का बंधन करोगे, यह उचित नहीं है।
अच्छे व् दोनों प्रकार के कर्मो का फल मिलता है। यदि मानव अच्छे कर्म करता है तो वह इस जन्म के साथ अगले जन्म में भी सुख मिलेगा लेकिन बुरे कर्म करेगा और जीवो की हिंसा, दूसरो को परेशान करेगा तो उसे अगले भव में नरक गति मिलेगी। मानव को यदि सुख पाना है तो वह अच्छे कर्म करे तथा बुरे कर्मो को करने से बचे! मानव को उसके अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के कर्मो का फल मिलता है! इसलिए मानव को सदैव शुभ व् अच्छे कर्म करना चाहिए ताकि वह सुख प्राप्त कर सके। यदि मानव बुरे कर्मो का बंधन करेगा तो उसे भी आगामी समय या अगले भव में दुःख ही उठाना पड़ेगा! इसलिए बुरे कर्म करने से पहले सोचो।
दूसरा कोई भी प्राणी या पदार्थ किसी को दुःख देने की शक्ति नहीं रखता, सब लोग अपने ही कर्मो का फल भोगते है, और उसी भोग से रोते, चिल्लाते रहते है। जीव के पीछे से ऐसी कठोर व्यवस्था बँधी हुई है, जो कर्मो का फल तैयार करती है! जेसे मछली पानी में तैरती है, उसकी पूंछ पानी को कटती हुई पीछे-पीछे एक रेखा सी बनती चलती है, साँप रेंगता जाता है और रेत पर उसकी लकीर बनती जाती है, उनके संस्कार बनते जाते है। बुरे कर्मो के संस्कार स्वयं बोई हुई कँटीली झाड़ी की तरह अपने लिए ही दुखदायी बन जाते है।
दुःख तीन प्रकार के के होते है :
१] दैविक
२] दैहिक
३] भौतिक
१] दैविक : दैविक वह दुःख होते है, जो मन को होते है, जैसे चिंता, आशंका, क्रोध, अपमान, शत्रुता, बिछोह, भय, शोक आदि! दैविक दुःख होते है।
२] दैहिक दुःख : दैहिक दुःख होते हे, जो शरीर से जुड़े होते है,
जैसे रोग, चोट, आघात, विष आदि के प्रभाव से होने वाले कष्ट।
३] भौतिक दुःख : भौतिक दुःख वो होते है, जो अचानक अदृस्य प्रकार से आते है, जैसे भूंकप, अतिवृष्टि, महामारी, युद्ध आदि !
इन्हीं तीन प्रकार के दुःख की वेदना से मनुष्यो को तड़पता हुआ देखा जाता है. यही तीन दुःख हमारे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कर्मो के फल है। मानसिक पापो के परिणाम से दैविक दुःख आते है, शारीरिक पापों के फलस्वरूप दैहिक और सामाजिक पापो के कारण भौतिक दुःख उत्पन्न होते है।
देविक दुःख : देविक दुःख मानसिक कष्ट उत्पन्न होने के कारण वे मानसिक पाप है, जो स्वेच्छापूर्वक तीव्र भावनाओ से प्रेरित होकर किए जाते है, जैसे ईर्ष्या, चल, दंभ, घमंड, क्रूरता, स्वार्थपरता आदि। इन कुविचारों के कारण जो वातावरण मस्तिष्क में घूमता रहता है, उससे अंत: चेतना पर उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, जिस प्रकार के गुण के कारण दीवार काली पड़ जाती है या तेल से भीगने पर कपङा गंदा हो जाता है. आत्मा का स्वभाव पवित्र है, वह अपने ऊपर इन पाप-मूलक कुविचारों, प्रभावो को जमा हुआ नहीं रहने देना चाहिती, वह इस फ़िक्र मे रहती है की किस प्रकार इस गंदगी को साफ करू? पेट में हानिकारक वस्तुएँ जमा हो जाने पर पेट उसे निकाल बहार करता है। इसी प्रकार तीव्र इच्छा से, जानबूझकर किए पापो को निकाल बहार करने के लिए आत्मा आतुर हो उठती हे, हम उसे जरा भी जान नहीं, किन्तु आत्मा भीतर ही भीतर उसके भार को हटाने के लिए अत्यंत व्याकुल हो जाती है. बाहरी मन, स्थूल बुद्धि को अदृस्य प्रक्रिया का कुछ भी पता नहीं लगता, पर अंतर्मन चुपके ही चुपके ऐसे अवसर एकत्रित करने में लगा रहता है, जिससे भार हट जाय.
दैहिक : मानसिक कष्टों का कारण समझ लेने के उपरांत अब दैहिक-शारीरिक कष्टों का कारण समझ ना चाहिए! जन्मजात अपूर्णता एवं पैतृक रोगो का कारण पूर्व जन्म में उन अंगो का दुरूपयोग करना है! मरने के बाद सूक्ष्म शरीर रह जाता है. नवीन शरीर की रचना इस सूक्ष्म शरीर द्वारा होती है। इस जन्म में जिस अंग का दुरूपयोग किया जा रहा है, वह अंग सूक्ष्म शरीर में अत्यंत निर्बत्व हो जाता है, पाप केवल शारीरिक है या उसमे मानसिक पाप का मिश्रण अल्प मात्रा में है, तो उसका शीघ्र ही शारीरिक प्रक्रिया द्वारा हो जाता है, जेसे नशा पिया, विष खाया- मृत्यु हुई, आहार- विहार में गड़बड़ी हुई, बीमार पड़े. इस तरह शरीर अपने साधारण दोषो की सफाई जल्दी-जल्दी कर लेता है और इस जन्म का भुगतान इस जन्म में कर जाता है, परंतु गंभीर शारीरिक दुगुर्ण जिनमे मानसिक जुड़ाव भी होता है, अगले जन्म में फल प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म शरीर के साथ जाते है.
भौतिक कस्टो :